क्रोध
Two is a company, Three is a crowd.
यह कहावत जिसने भी कही, बहुत सही कही।
लेकिन मुझे तो एकांत ही प्रिय है। मुझे तो दो भी भीड़ ही लगती है
लेकिन कुछ दिन पहले किसी कारणवश मुझे भी भीड़ का हिस्सा बनने का मौका मिला।
वहाँ किसी कारण मुझे गुस्सा आ गया। जोकि मैंने ज़ाहिर भी कर दिया।
वापिस आकर जब मैं गीता पढ़ रहा था तो दूसरे अध्याय का 63वा श्लोक पढ़ा।
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।63।।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।।63।।
स्वयं पर बहुत ग्लानि हुई कि मैं क्यों भीड़ का हिस्सा बना, क्यों अपनी स्थिति से गिरा? मुझे स्पष्ट रूप से मना कर देना चाहिए था और अगर बना भी तो वहाँ प्रकृति के तीनों गुणों सत्व, रज और तमोगुण द्वारा जो भी कार्य हुए उन्हें द्रष्टा बन देखना चाहिए था, कोई प्रतिक्रिया नही करनी चाहिए थी, गुस्सा नही करना चाहिए था।
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुजरा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ।
अब आगे से पहले वाले नियम 'एकला चलो' पर ही अमल करना है।
न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
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